बाती की आत्मकथा
लोग कहतें हैं दीपक जलता है पर जलती मैं हूँ बाती
किसे सुनाऊ मैं अपनी पीड़ा किसे सुनाऊ आप बीती
जब पेङों पर मेरा दुधिया रूप हवा के हिचकोले लेता
मंद मंद मुस्काता किसान और व्यापारी खुश हो जाता
मैं बिचारी डाली से टूट बोरे में बंधा जाता
तब मुझे मालूम न था तकली की सूली पर चढ़ना होता
किसी तरह जुलाहे से बचकर इधर उधर बच जाती हूँ
अम्मा दादी या बिटिया के हाथों छोटे टुकड़ो मेँ बँट जाती हूँ
अंतिम संस्कार से पहले मुझे तेल से नहलाया जाता
फिर दिये में रखकर मुझमे आग लगाया जाता
कभी बनूँ आरती की बाती
कभी कफ़न का साथी
या किसी गरीब की
कुटिया में उजाला बाँटती
जैसे शमा पाता है काजल उजाला बाँटकर
वैसे तपकर मैं खुश होती जग से अँधियारा दूर कर
छोटी सी ये मेरी काया
दूर भगाता तम का घेरा
और फिर जल जल कर
खाक में तब्दील हो जाता